Balmukund Gupt par nibandh
जीवन परिचय
बाबू बाल मुकुन्द गुप्त का जन्म 14 नवंबर 1865 ई० में हरियाणा के झज्जर नगर के निकट गुड़ियाना गाँव में हुआ था । इनके पिता का नाम लाला पूरनमल तथा पितामह का नाम लाला गोवर्धन दास था । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई थी तथा बाद में विद्यालय गए , किन्तु अपने पिता और दादा के मृत्यु के कारण अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाये थे । पन्द्रह वर्ष की आयु में ही उसका विवाह अनार देवी के साथ हो गया था । अध्ययन की रूचि के कारण इक्कीस वर्ष की आयु में इन्होंने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी ।
स्वाध्याय से इन्होंने उर्दू , हिन्दी , बंगला , संस्कृत , अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर विशेष अधिकार प्राप्त कर लिया था । उन्होंने स्वतंत्र लेखन के साथ – साथ उर्दू में प्रकाशित अखबारे चुनार , कोहेनूर , ज़माना , अवधपंच और भारत प्रलाप का सम्पादन भी किया था । पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रेरणा से उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया था और तीन दैनिक पत्रों हिन्दोस्थान , हिन्दी बंगवासी और भारत मित्र का सम्पादन किया । केवल बयालीस वर्ष की अल्प आयु 18 सितम्बर 1907 ई० में इनका देहावसान हो गया था ।
गद्य शिखर साहित्य
बाबू बाल मुकुन्द गुप्त बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे । इन्हें प्रबुध पत्रकार , कुशल सम्पादक , गंभीर चिंतक , ओजस्वी निबंधकार , संवेदनशील कवि , देशभक्ति , समाज सुधारक आदि के रूप में जाना जाता है । उनकी प्रमुख रचनाएँ शिवशम्भु के चिट्ठे , चिट्ठे और खत , बाल मुकुन्द गुप्त निबन्धावली , स्फुट कविताएँ , बाल मुकुन्द गुप्त ग्रन्थावली आदि है । बाल मुकुन्द गुप्त का साहित्य जगत में प्रवेश पत्रकारिता के माध्यम से हुआ था । पहले उर्दू और बाद में हिन्दी के विभिन्न पत्रों का सम्पादन करते हुए उन्होंने अनेक समसामयिक विषयों पर सम्पादकीय लेख , कविताएँ आदि लिखी थीं । उनके निबंधों तथा अन्य रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना का स्वर अत्यन्त प्रखरता से उभर कर आया है । ब्रिटिश साम्राज्य के तत्कालीन प्रतिनिधि गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने ‘ शिव शम्भु का चिट्ठा ‘ तथा ‘भारत मित्र’ की सम्पादकीय टिप्पणियों में खुलकर शब्दवाण छोड़े हैं ।
अपनी राष्ट्रीयता की भावना तथा अंग्रेजी शासन की आलोचना के कारण ही उन्हें राजारामपाल सिंह के पत्र ‘हिन्दोस्थान’ की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था । इस सम्बन्ध में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी का यह कथन अवलोकनीय है कि ” हिन्दी पत्रकार कला के इतिहास में यह शायद पहला ही मौका था जबकि गवर्नमेण्ट के विरूद्ध बहुत बड़ा लेख लिखने के कारण किसी पत्रकारों को च्युत किया हो । ”
Balmukund Gupt par nibandh
सामाजिक और देश प्रेम की भावना
अपने देश प्रेम की भावना उस कथन को स्पष्ट होती है जब लॉर्ड कर्जन कलकत्ता विश्वविद्यालय में दिए गए अपने भाषणों में पूर्व के लोगों को मिथ्यावादी तथा सत्य का अनादर करने वाला कहता है तो गुप्तजी शिवशम्भु के चिट्ठे के माध्यम से लिखते हैं कि जो सत्यप्रियता उस देश को सृष्टि के आदि से मिली है , जिस देश का ईश्वर सत्यज्ञानमनन्तम् ब्रह्म है , वहां के लोगों को सभा में बुला के ज्ञानी और विद्वान का चोला पहनकर उन के मुंह पर झूठा और मक्कार कहने लगे विचारिये तो यह कैसे अधःपतन की बात है? यदि सचमुच विलायत वैसा ही देश हो , जैसे आप फरमाते हैं और भारत भी आपके कथनानुसार मिथ्यावादी और धूर्त देश हो , तो भी तो क्या कोई इस प्रकार कहता है?”
इन्होंने अपने निबंधों में विभिन्न सामाजिक कुरीतियों की भी खुलकर आलोचना की है तथा समाज सुधारने के लिए लोगों को प्रेरित किया है । जल के अभाव से त्रस्त रायगढ़ नामक रियासत के टपरदा गाँव के निवासियों की दुर्दशा की ओर तत्कालीन शासकों का ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने लिखा था कि रियासती सरकार ऐसे गाँवों में खुदवा कर जलकष्ट निवारण क्यों नहीं करती ? उन्होंने अपने निबंधों में विधवा विवाह, बेमेल विवाह, अंधविश्वास, बाल विवाह, सांप्रदायिकता, आदि सहित कई विषयों को शामिल किया है।
भाषागत विशेषता
बाबू बाल मुकुन्द गुप्त ने हिन्दी भाषा और व्याकरण को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए ‘ भारतमित्र ‘ के माध्यम से सार्थक प्रयास किया था । इनकी भाषा खड़ीबोली हिन्दी थी । आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के अनुसार ” किसी प्रकार का विषय हो, गुप्तजी की लेखनी उस पर विनोद पूर्ण रंग चढ़ा देती थी । उनकी हिंदी फड़कती हुई जान पड़ती थी। उन्होंने अपने विचारों को मनोरंजक विवरणों में समेटने की कोशिश की, ताकि उनकी छाप केवल दुर्लभ अवसरों पर ही खोजी जा सके। इन्होंने अपनी कविताओं में भी तत्कालीन शासकों के साथ-साथ चापलूसी हिन्दुस्तानियों पर भी व्यंग्य किया है ।
भाषा शैली
इनकी शैली सर्वत्र व्यंग्यकता रही है जिस में कहीं – कहीं आत्मकथात्मक एवं विवरणात्मक सर्वत्र व्यंग्यात्मक रही है जिस में कहीं – कहीं आत्मकथात्मक एवं विवरणात्मक शैली के दर्शन भी होते हैं । इनके व्यंग्य विचार प्रधान होने के कारण तीक्ष्ण प्रहार करते हैं ।